श्री तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में कहा है
धीरज धर्म मित्र अरु नारी | आपद काल परखिहेहू चारी ||
जिसका सामान्य सा अर्थ है की विपत्ति में ही मनुष्य के धीरज की , उसके धर्म पालन की , उसके मित्रों की और उसकी स्त्री की परीक्षा होती है | जिस समय तुलसी जी मानस लिख रहे थे उस समय ही उनको भान था की आने वाला समय कितना वीभत्स होगा | उत्तर काण्ड में कलयुग के चरित्र का वर्णन इतना सत्य किया गया है की उसका एक शब्द भी असत्य नहीं हुआ | जो कुछ लिखा था वैसा का वैसा ही हम देख रहे हैं |
आज किसी के पास भी धैर्य नहीं है , सबको जल्दी पड़ी हुई है -- जाना कहाँ है और पाना क्या है ये किसी को भी ठीक से नहीं पता किन्तु भागा जा रहा है | इंसान का मन विश्व की सबसे तेज़ गति से चलने वाली क्रिया है जो कभी नहीं रूकती जब तक की सांस न रुक जाय | बुरे समय में यही मन व्यक्ति को विवश बना देता है और उसी मन के कारण हमको - आपको मुझे सबको , वोह सब करने को मजबूर कर देता है जो की कभी सोचा भी नहीं होता | कितने ही उदहारण हमारे सामने हैं , किसी ने क़र्ज़ में जहर पी लिए , किसी ने किसी का खून कर दिया और पता नहीं क्या क्या , मगर उस से हासिल क्या हुआ ? कुछ नहीं . जान गयी सम्मान गया , खून करा तो सजा पायी परिवार को दोनों ही तरह परेशान होना पड़ा |
जो दुःख में भे संयमित रहे , जिसका संयम अटूट है - समय उसके आगे झुकता ही है - यह प्रकृति का नियम है किन्तु वेदना की तीव्रता को हजम कर पाना आजकल किसी के भी बस में नहीं है | बड़े बड़े महलों के स्वप्न संजोय लोग रोज़ सुबह से शाम अपना जीवन तमाम कर रहे हैं |
वही हाल धर्म का भी हो गया है | धर्म पालन ही मनुष्य के सुखी जीवन का सबसे बड़ा मूलमंत्र है | किन्तु धर्म की व्याख्या ही बदल दी गयी है | स्त्री धर्म नाम का एक शब्द हुआ करता था कभी जिसका अब कोई औचित्य ही नहीं रह गया है | धर्म ही हमको संबल देता है और संस्कार देता है किन्तु आपदा में हम धर्म की शिक्षा भूल कर विपत्ति से मुक्त होने के लिए कुछ भी करने को तिययर हो जाते हैं | धर्म का ह्रास शुरू कर देते हैं |
कलियुग में मित्र होने से अच्छा है की चार शत्रु हो जाएँ जिससे पता तो रहे की अमुक मेरे बारे में अच्छा नहीं सोचता | इस चौपाई का अर्थ तो मात्र इतना है की मुसीबत में ही दोस्त की कीमत पता चलती है | हम अपने जीवन में कितने ही ऐसे समयों से गुज़रते हैं जब या तो हम अपने मित्रों से सहायता ये वे हमसे सहायता मांगते है किन्तु मांगने पर मुह फेरने वाले लोग ही आजकल अधिक हैं |
आदमी का सबसे बड़ा साथी उसकी स्त्री होती है , किन्तु विपत्ति में अगर वोही साथ ने दे तो किस काम की ?
और विपत्ति ही क्यों , हर समय ही उसका साथ निश्छल और निष्कपट सहयोग रहना ही व्यक्ति की सबसे बड़ी शक्ति होती है . किन्तु आज ऐसा कुछ नहीं है |
आजकल समाचार पत्रों में रोज़ ही पढने को मिल जाता है की प्रेमी के साथ मिलकर करी पति की हत्या , दहेज़ प्रताड़ना का झूठा केस लगाकर पैसे लेकर बीवी चम्पत हो गयी वगेरह वगेरह |
मन में धन की लिप्सा जितनी अधिक होगी , अशांति भी उती ही अधिक रहेगी और आदमी भटकता ही रहेगा | इस भटकाव का कोई अंत नहीं है | सबसे प्रथम तो स्वार्थलोलुपता की तिलांजलि देनी ही होगी , मन से महलों और परियों के ख्वाब मिटाने ही होंगे अन्यथा व्यक्ति जीवनपर्यंत गधे की तरह भटकता ही रहने वाला है और अंत में हासिल कुछ नहीं होने वाला है |
आप जिस भी धर्म के हैं , उसका अनुसरण हर स्थिति में करना , धैर्य नहीं खोना और स्वार्थ और अहंकार के जाल में नहीं फंसना ही कलियुग के शिकारियों से आपको बचा सकता है |
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